भटनेर का किला (Bhatner fort)
उतर भड़ किंवाड़ -भाटियों का गर्वीला गढ़ भटनेर अनेक शताब्दियां बीत जाने पर भी भूगर्भ में विलुप्त वैदिक नदी सरस्वती के तट पर गर्व से मस्तक उठाये खड़ा है। इसी गढ़ को अपनी आश्रय स्थली बनाकर गणतन्त्र प्रणाली के पौषक प्रतापी यौधेयों (जोहियों ) ने इस विस्तृत जांगल प्रदेश पर शान से शासन किया था। उनके पराक्रम की कहानियों के प्रतीक रंगमहल और पल्लू नामक स्थान आज भी उनकी स्मृतियों को कायम रखे हुए है।
यदुवंशी भाटियों ने इसी गढ़ को पकड़ कर तुर्कों के भयंकर आक्रमण का प्रतिरोध किया था।
राव बीकाजी और उनके वंशज रणबंका राठोड़ों ने इस गढ़ में अनेक बार जौहर व साकों का आयोजन कर -----इस दुर्ग के चप्पे चप्पे को रक्त स्नान करा कर उन नर नाहरों ने अपनी वीरता का कीर्तिमान स्थापित किया था। राजपूती पराक्रम व शौर्य की उन्ही रोमांचक गर्वीली गाथाओं को अपने अन्तःस्थल में छिपाये मूक साक्षि के रूप में खड़ा भटनेर का दुर्ग हमारे लिए वन्दनीय है ,गौरव की वस्तु है।
इस दुर्ग की गौरव गाथा सन्क्षेप में नही कहि जा सकती। सम्वत १४५५ विक्रमी में मुगल आक्रांता तैमूरलंग ने भाटियों को पराजित करके इस पर अल्पकालीन अधिकार किया था। किन्तु उसके पीठ फेरते ही चाहिल राजपूतों ने इसे अधिकार में ले लिया। मुगल बादशाह हुमायु के भाई मिर्जा कामराँ ने भी सम्वत १५९१ विक्रमी में इस दुर्ग पर आक्रमण किया था। उस काल इस दुर्ग का अधिपति रावत कांधलजी का पौत्र खेतसी अरड़कमलोत था। उसने अपने एक हजार राजपूत योद्धाओं के साथ गढ़ से बाहर निकल कर मुगलों को राजपूती तलवारों का पानी चखाया था और वह वीर योद्धा यहां की धरती को अपने खून से धपा कर उसी में समा गया।
सम्राट अकबर के शासन काल में भी यह किला बीकानेर के राठोड़ों के अधिकार में था। राव जैतसी का छोटा पुत्र ठाकुरसी तब यंहा का दुर्गाध्यक्ष था। भटनेर के शाही सेना से घिर जाने और खाद्य सामग्री के आभाव में गढ़ में रह कर प्रतिरोध करना असम्भव जानकार ठाकुरसी ने मरण महोत्सव का निश्चय किया। गले में तुलसी माला डाल कर तथा केसरिया वस्त्र पहन कर अपने साथियों के साथ गढ़ के द्वार खोल कर वह बांका भड़ बाहर निकला और भूखे सिंह की भांति शत्रु सेना पर टूट पड़ा। अपनी कुल परम्परा के अनुसार क्षत्रिय धर्म का पालन करता हुआ वह भी धारा तीर्थ में स्नान कर कीर्ति शेष हुआ। बीकानेर के राजा राय सिंह के पुत्र दलपत ने भी इसी गढ़ को ओट लेकर सम्राट जंहागीर की सबल सेना का कुछ दिनों तक मुकाबला किया था। यहीं पर उसके वीर योद्धा जसवंत सिंह सोनगरा (चौहान) ने राजपूती का वह अदभुत व रोमांचक खेल खेला था ,जिसे देख कर शत्रु भी वाह वाह कह उठा। उसने दुर्ग की राजपूताणियो को अग्नि समर्पित करके अपनी पत्नी के मस्तक को माला की भांति गले में बांध कर महाकाल रूद्र का स्वरूप धारण किया। हाथ में तलवार लेकर वह शत्रु दल पर भूखे शेर की मानिन्द टूट पड़ा और अनेकों को यम लोक पँहुचा कर स्वयम भी स्वर्ग गामी हुआ। भटनेर के इस गढ़ ने तब अंतिम बार काल से टकरा जाने वाले राजपूत का वह मृत्युंजयी खेल देखा था।
खण्डेला के राजा रायसल शेखावत ने भी भटनेर के आक्रमण में शामिल होकर इस धरती पर अपने शौर्य का परिचय दिया था। उनके भतीजे मनोहरपुर -शाहपुरा के शासक राव मनोहरदास बादशाह जंगीर के समय भटनेर दुर्ग के दुर्गाध्येक्ष रहे थे। उन्होंने यहां पर एक दरवाजे का निर्माण करवाया था। जिसके सम्बन्ध का फ़ारसी लिपि में अंकित एक लेख सम्वत १६६५ विक्रमी का इस दुर्ग में लगा हुआ है। इस प्रकार महाराव शेखाजी के वंशजों का भी भटनेर के इस इतिहास प्रसिद्ध दुर्ग के साथ कुछ भावनात्मक सम्बन्ध बना रहता आया है।
बीकानेर के महाराजा गण तो इस दुर्ग को अपने अधिकार में रखने हेतु अपने राज्य स्थापना के काल (सम्वत १५४५ विक्रमी ) से ही संघर्ष रत रहते आये हैं। कभी भटनेर उनके हाथ में आया तो कभी भाटियों ,जोहियों और चाहिलों ने इसे अपनाया। सदैव इस पर अधिकार जमाने हेतु रक्त की नदियां बहती रही।
अंत में मुगल साम्राज्य के पतन काल में बीकानेर के राजा सूरत सिंह की सेनाओं ने विक्रमादि १८६१ की मंगसर बदी २ मंगलवार के दिन इस गढ़ को विजय करने के उपलक्ष में इसका नाम हनुमानगढ़ रखा गया। तभी से भटनेर, हनुमानगढ़ के नाम से प्रसिद्ध है। किन्तु जो गौरव और गरिमा भटनेर के नाम के साथ जुडी हुयी है -उसका महत्व तो निराला ही है। वह नाम राजपूत जाती के लिए सदैव प्रेरणा श्रोत बना रहेगा।
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ReplyDelete😊😊😊
DeleteGud dadobhai
ReplyDeleteThnx dadobhai share kr dyo😊😊
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