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बीकानेर के महाराजा करण सिंह राठौड़ के जीवन से जुड़ी बातें

बीकानेर के राठौड़ राजाओं में महाराजा करण सिंह का स्थान बड़ा महत्त्वपूर्ण है. करण सिंह का जन्म वि.स. 1673 श्रावण सुदि 6 बुधवार (10 जुलाई 1616) को हुआ था. वे महाराजा सूरसिंह के ज्येष्ठ पुत्र थे अत: महाराजा सूरसिंह के निधन के बाद वि.स. 1688 कार्तिक बदि 13 (13 अक्टूबर 1631) को बीकानेर की राजगद्दी पर बैठे. बादशाह शाहजहाँ के दरबार में करणसिंह का सम्मान बड़े ऊँचे दर्जे का था. उनके पास दो हजार जात व डेढ़ हजार सवार का मनसब था. कट्टर और धर्मांध मुग़ल शासक औरंगजेब से बीकानेर के राजाओं में सबसे पहले उनका ही सम्पर्क हुआ था. औरंगजेब के साथ उन्होंने कई युद्ध अभियानों में भाग लिया था अत: जहाँ वे औरंगजेब की शक्ति, चतुरता से वाकिफ थे वहीं औरंगजेब की कुटिल मनोवृति, कुटिल चालें, कट्टर धर्मान्धता उनसे छुपी नहीं थी. यही कारण था कि औरंगजेब ने जब पिता से विद्रोह किया तब वे बीकानेर लौट आये और दिल्ली की गद्दी के लिए हुए मुग़ल भाइयों की लड़ाई में तटस्थ बने रहे. विद्यानुराग : महाराजा करण सिंह स्वयं विद्वान व विद्यानुरागी होने के साथ विद्वानों के आश्रयदाता थे. उनकी सहायता से कई विद्वानों ने मिलकर “साहित्यकल्पद्रुम” नामक ग्रन्थ रचा, पंडित गंगानंद मैथिल ने “कर्णभूषण”, “काव्य डाकिनी”, भट्ट होसिक कृत “कर्णवंतस”, कवि मुद्रल कृत “कर्णसंतोष” व “वृतासवली” नामक ग्रन्थों की रचना हुई जो आज भी बीकानेर के राजकीय पुस्तकालय में विद्यमान है. औरंगजेब के साथ संबंध : औरंगजेब के गद्दी पर बैठने के बाद बेशक वे उसके साथ रहे, कई युद्ध अभियानों में भाग लिया पर वे सदैव उसकी तरफ से सतर्क रहते थे. यह उनकी सतर्कता का ही प्रतिफल था कि सभी हिन्दू राजाओं को औरंगजेब का जबरन मुसलमान बनाने का षड्यंत्र विफल हो गया. ख्यातों के अनुसार औरंगजेब की इच्छा सभी राजाओं का धर्मान्तरण कर मुसलमान बनाने की थी, परन्तु महाराजा करण सिंह की रगों में बसे स्वधर्म व जातीय रंग ने उसकी यह इच्छा पूरी नहीं होने दी. हालाँकि उनके इस निर्भीकता पूर्ण कार्य के लिए उन्हें औरंगजेब के कोप का भाजन भी बनना पड़ा. औरंगजेब की उक्त मंशा असफल होने पर वह महाराजा करण सिंह पर काफी क्रुद्ध हुआ, उनकी जागीर व मनसब आदि जब्त कर लिए और उनके घर में फूट डालने के प्रयोजनार्थ उनके पुत्र अनूप सिंह को बीकानेर का राज्य तथा ढाई हजार जात व दो हजार का मनसब दिया. मुलसमान लेखकों ने फ़ारसी तवारीखों में औरंगजेब का करण सिंह से रुष्ट होना, उनकी जागीर व मनसब जब्त कर उनके पुत्र को राजा की पदवी देना आदि विवरण तो दर्ज है पर औरंगजेब उन पर क्यों रुष्ट व क्रोधित हुआ के कारणों पर प्रकाश नहीं डाला गया| लेकिन राजस्थान के ख्यात लेखकों द्वारा इस प्रकरण पर लिखे वृतांत के अनुसार राजस्थान के मूर्धन्य इतिहासकार गौरीशंकर हीराचंद ओझा ने “बीकानेर राज्य के इतिहास” पुस्तक भाग- 1, के पृष्ट संख्या 204 पर लिखा है- “वैसे तो कई मुसलमान बादशाहों की अभिलाषा इतर जातियों को मुसलमान बनाने की रही थी, पर औरंगजेब इस मार्ग पर आगे बढ़ना चाहता था. उसने हिन्दू राजाओं को मुसलमान बनाने का दृढ निश्चय कर लिया और इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए कशी आदि तीर्थ स्थानों के देवमन्दिरों को नष्ट कर वहां मस्जिदें बनवाना आरम्भ किया. ऐसी प्रसिद्धि है कि एक समय बहुत से राजाओं को साथ लेकर बादशाह ने ईरान (?) की और प्रस्थान किया और मार्ग में अटक में डेरे हुए. औरंगजेब की इस चाल में कयास भेद था, यह उसके साथ जाने वाले राजपूत राजाओं को मालूम न होने से उनके मन में नाना प्रकार के सन्देह होने लगे, अतएव आपस में सलाह कर उन्होंने साहबे के सैय्यद फ़क़ीर को, जो करण सिंह के साथ था, बादशाह के असली मनसूबे का पता लगाने भेजा. उस फ़क़ीर को अस्तखां से जब मालूम हुआ कि बादशाह सब को एक दीन करना चाहते है, तो उसने तुरंत इसकी खबर करण सिंह को दी. तब सब राजाओं ने मिलकर यह राय स्थिर की कि मुसलमानों को पहले अटक के पार उतर जाने दिया जाय, फिर स्वयं अपने अपने देश को लौट जायें. बाद में ऐसा ही हुआ. मुसलमान पहले उतर गये. इसी समय आंबेर के राजा जयसिंह की माता की मृत्यु का समाचार पहुंचा, जिससे राजाओं को 12 दिन तक रुकने जाने का अवसर मिल गया, परन्तु उसके बाद फिर समस्या उतन्न हुई.तब सब के सब करण सिंह के पास गए और उन्होंने उससे कहा कि आपके बिना हमारा उद्धार नहीं हो सकता. आप यदि नावें तुड़वा दें तो हमारा बचाव हो सकता है, क्योंकि ऐसा होने से देश को प्रस्थान करते समय शाही सेना हमारा पीछा न कर सकेगी. करणसिंह ने भी प्रस्ताव स्वीकार कर लिया और धर्मरक्षा के लिए बादशाह का कोप-भाजन बनना पसंद किया. निदान ऐसा ही किया गया और इसके बदले में समस्त राजाओं ने करणसिंह को “जंगलधर बादशाह” का ख़िताब दिया. साहिबे के फ़क़ीर को उसी दिन से बीकानेर राज्य में प्रतिघर प्रतिवर्ष एक पैसा उगाहने का हक है. अनन्तर सब अपने-अपने देश चले गए.” जंगलधर बादशाह की पदवी : जैसा की इतिहासकार गौरीशंकर ओझा ने लिखा है कि औरंगजेब के षड्यंत्र विफल करने के लिए राजाओं का नेतृत्व करने के बदले राजाओं ने उन्हें जंगलधर बादशाह का ख़िताब दिया. वहीं जयपुर की ख्यात में लिखा है- यह खबर बादशाह ने सुनी तो वह अपने वजीर के साथ बीकानेर के राजा के डेरे में आया. सब राजाओं ने अर्ज किया कि आपने मुसलमान बनाने का विचार किया, इसलिए आप हमारे बादशाह नहीं और हम आपके सेवक नहीं. हमारा तो बादशाह बीकानेर का राजा है, सो जो वह कहेगा हम करेंगे, आपकी इच्छा हो वह आप करें. हम धर्म के साथ है, धर्म छोड़ जीवित रहना नहीं चाहते. बादशाह ने कहा- तुमने बीकानेर के राजा को बादशाह कहा सो अब वह जंगलपति बादशाह है. फिर उसने सब की तसल्ली के लिए कुरान बीच में रख सौगंध खाई कि अब ऐसी बात तुमसे नहीं होगी. औरंगजेब द्वारा वापस बुलाना : औरंगजेब का हिन्दू राजाओं का षड्यंत्र विफल कर देने के बाद नाराज होकर दिल्ली लौटने पर उनके ऊपर सेना भेजी गई, उनके पुत्र को राजा की पदवी व मनसब आदि दिए गए व उन्हें बुलाकर मरवाने का षड्यंत्र द्वारा रचा गया. इसी षड्यंत्र के तहत उन्हें एक अहदी के माध्यम से सूचना देकर दरबार में बुलवाया गया जिसे उन्होंने स्वीकार भी कर लिया पर औरंगजेब की कुटिल चालों को समझने वाले महाराजा करण सिंह अपने दो वीर पुत्रों केसरी सिंह तथा पद्म सिंह को साथ ले दिल्ली दरबार में पहुंचे, जिसकी वजह से औरंग द्वारा उन्हें मरवाने के प्रबंध विफल हो गए. तब बादशाह ने उन्हें औरंगाबाद में भेज दिया, जहाँ वे अपने नाम से बसाए कर्णपुरा में रहने लगे. अंतिम समय : फ़ारसी तवारीखों के अनुसार औरंगाबाद पहुँचने के लगभग एक वर्ष बाद महाराजा करण सिंह निधन हो गया. करणसिंह की स्मारक छतरी के लेख के अनुसार वि.स. 1726 आषाढ़ सुदि 4 मंगलवार (22 जून 1669) को उनका निधन हुआ था. रानियां तथा संतति : महाराजा करण सिंह के आठ पुत्र हुए- 1. रुकमांगद चंद्रावत की बेटी राणी कमलादे से अनूप सिंह, 2. खंडेला के राजा द्वारकादास की बेटी से केसरी सिंह, 3. हाड़ा वैरीसाल की बेटी से पद्म सिंह, 4. श्री नगर के राजा की पुत्री राणी अजयकुंवरी से मोहनसिंह, 5. देवीसिंह, 6. मदन सिंह,7. अमरसिंह. उनकी एक राणी उदयपुर के महाराजा कर्णसिंह की पुत्री थी. उससे नंदकुंवरी का जन्म हुआ, जिसका विवाह रामपुर के चंद्रावत हठीसिंह के साथ हुआ था. कर्नल टॉड के गलत तथ्य : महाराजा करण सिंह को कर्नल टॉड ने रायसिंह का पुत्र लिखकर बीकानेर के इतिहास में भ्रांति फैलाई. बीकानेर राज्य के इतिहास के छटे अध्याय में पृष्ट 193 के फूट नोट पर गौरीशंकर हीराचंद ओझा लिखते है कि “टॉड का कथन ठीक नहीं है. वास्तव में वह (टॉड) बीच के दो राजाओं, दलपत सिंह एवं सूरसिंह के नाम तक छोड़ गया|”

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